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तपते पहाड़ों में सियासी गर्मी

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तपते पहाड़ों में सियासी गर्मी  नमस्कार दोस्तों,  हम आज के इस लेख के माध्य से क्षेत्रीय चुनाव के हालात  का जायजा लेंगें ।   जहाँ  देश भर में  लोकसभा के चुनाव चर्चित हैं  वही इस बार  हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी रोचक हैं। जहाँ  हम अगर प्रादेशिक दृष्टिकोण को देखें तो हिमाचल यानी  हिम  का आँचल  ,,, हिमालय की गोद में बसा हुआ धरा का भाग  जो पेड़ो  से हरा- भरा है  बर्फ से ढकी चोटियाँ हैं  और कल कल पानी करते झरने- कतार  मे बहते शुद्ध पानी की नदियाँ हैं । आबादी  के हिसाब से देखें  तो लगभग 78 लाख जनसँख्या के साथ यह देश के सबसे छोटे राज्यों  में  से एक है । यहाँ  विधानसभा की 68 सीटें हैं  4 लोकसभा की सीटें  और साथ ही 3 सीटें  राज्यसभा   के लिए अंकित हैं ।  प्रदेश का राजनीति इतिहास  प्रदेश का राजनीतिक इतिहास के ऊपर हम नजर डालें  तो प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री  और राज्य निर्माता डॉक्टर यशवंत सिंह परमार थे।जबकि  वर्तमान मुख्यमंत्री  सुखविंदर सिंह (सुखू)  हमीरपुर जिले के नदौन  क्षेत्र से सम्बन्धित  हैं । इसके अलावा कांग्रेस की तरफ़ से  ठाकुर रामलाल सिंह, राजा वीरभद्र सिंह, और भारतीय जनता पार्

कभी -कभी हमें.... .... तुम याद आते हो ।

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 नमस्कार दोस्तों, हमारी आज की कविता का शीर्षक है , कभी -कभी हमें ....                      .... तुम याद आते हो । हम आपसे उम्मीद करते हैं, कि आप यह कविता जरूर पढ़ेंगे और  अंत में कमेन्ट करके ज़रूर बताएंगे कि हमारी यह कविता आपको कैसी लगी ? इससे आगे  पंक्तियां हैं :- 1) कभी -कभी हमें  वो बीती हुई ,घड़ियाँ याद आती हैं, जब हम दिल के पैग़ाम लिए , उनके क़रीब से ख़ाली गुज़र जाते थे। 2) कभी -कभी हमें वो चोट खाए हुए ,घावों के निशान याद आते हैं , जब हमारे घावों पर ,तुम्हारे कोमल हाथों के स्पर्श मात्र से  मरहम और दारू का असर लगता था। 3)कभी -कभी हमें वो तुम्हारा गुस्से वाला चेहरा नज़र आता था , जब तुम्हारी लाल आँखों में , प्रेम की चाह के अश्रु प्रवाहित होते थे। 4)कभी -कभी हमें तुम्हारी , वो बर्दाश्त की हुई नाराज़गी याद आती थी, जब तुम्हारे बुराँश के फूल से  खिले होंठो से गूँजती नज़्मो को आवाज़ धीमी हो जाती थी। 5) कभी -कभी  हमें तुम इतना याद आते हो ,इतना ज़्यादा याद आते हो , कि हम तुम्हें याद करते-करते , अपने आप को खो जाते हैं।❤️  शब्दार्थ:- पैग़ाम-संद

खुशमिजाज़

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नमस्कार दोस्तों , लम्बे समय के बाद ब्लॉग पर अपनी अगली कविता प्रस्तुत की है । कोरोना के इस संकट काल में हर व्यक्ति ने कोई न कोई करीबी खोया है , मगर ज़िन्दगी फिर भी थम नही सकती है । वक्त चल रहा  है  यह गतिशील है यह अपनी रफ़्तार से रुकता नही है किन्तु इंसान की ज़िन्दगी की रफ़्तार कभी बदलती रहती है कभी यही धीमी हो जाती है तो कभी तेज चलती है और ज़िन्दगी एक समतल  मैदान पर आ दौड़ती है । हमें आस पास आगे पीछे हर जगह सीखने को मिलता रहता है और इस निरन्तर चाल से ही हमारी ज़िंदगी की गति होती है ।  महामारी के इस दौर में हर व्यक्ति परेशानी झेल रहा है , कुछ व्यवसाय से , तो कुछ आय से  और कुछ नही तो फालतू वाली राय से चिंतित है । आज की कविता की पंक्तियो हर घड़ी में स्थिर कैसे रहना है ,इसका प्रयास  किया गया है कि जब  सब कुछ असंभावित लगता है तब उस वक्त भी एक सम्भावना जरूर होती है ।  अतः ज़िन्दगी में हर वक्त खुश ही रहना चाहिए, आशा करती हूँ कि आपको मेरी यह  कविता " खुशमिजाज़"  ज़रूर पसन्द आएगी , और आप जीवन 😁😁😁 में खुुश रहेंगें। मैं बहुत  खुशमिजाज़  हूँ, थोड़ा खुश कल थे,  कुछ आज भी हूँ। जैसे... ग़

मैं 'बेचैन' क्यूँ हूँ?

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मैं 'बेचैन' क्यूँ हूँ? हँसी-ख़ुशी, उदासी-ग़म हमारे जीवन का हिस्सा होते हैं ।  इंसान के जीवन में व्यवहारिक क्रियाओं के जरिए भीतर के भाव झलकते(प्रदर्शित होते)  है।ज्यादातर समय इंसान के मन में क्या चल रहा है ?  यह सामने वाले को उसकी हरकतों के माध्यम से अंदेशा हो जाता है । किन्तु इंसान के जीवन में सबका स्वभाव भिन्न होता है । कुछ लोगों के स्वभाव में स्वचालित क्रियाएँ होती है और अन्य लोग अपने स्वभाव को किसी भी स्थिति में नियंत्रित रखने में सक्षम रहते है।ऐसे में जाहिर सी बात है कि नियंत्रण के समय  मन के भीतर कुछ न कुछ तो जरूर छुपा रहता है , क्या छुपा है?  यह किसके साथ बताना चाहिए, किसके साथ नही बताना चाहिए, यह मन को असमंजस में डाल देता है । कौन इस बात का सही हल निकाल सकता है ,और सबसे आवश्यक है कि हल का सही समय क्या है ?    सब हल की उम्मीद हम अपने करीबी दोस्तों , परिवारिक सदस्यों से ही करते  हैं । मगर कुछ बातें ऐसी भी होती है: "जिनको हम न छुपा सकते है , न ही किसी से बता सकते हैं"। इस तरह हम दुविधा में फँस जाते  हैं . इसी में  'प्रेम भी एक प्रमुख विषय

आज़ादी बूटे दी...

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नमस्कार दोस्तों मेरा आज के लेख का नाम "आज़ादी बूटे दी" है। बूटा पौधे को कहा जाता है। इस लेख का प्रकाश  हमारे पर्यावरण से हो रही मौलिक छेड़छाड़ से सम्बंधित है । आप इस लिख को जरूर पढ़ें  और आपसे विनति है कि आप पर्यावरण के बचाव में सहयोग जरूर ऱखे। आज का लेख इस तरह से निम्लिखित है। आजादी बूटे दी.... न जाने आने वाले कल का गुजारा कैसे होगा? यह प्रश्न अक्सर उन लोगों के जुबाँ से निकलता है जिन्होंने अपनी जिंदगी में प्रयासरत कार्य किए होते हैं। मेहनत जिंदगी का एक ऐसा कर्म है जिसके  बिना जिंदगी अधूरी है । और जो मेहनत करता है उसको  जिन्दगी में फल भी मिलता है भले ही यह फल देर से मिले ।  अब  मेरे मन में एक विचार इसी पहलू से आलंकित आया है , जिसमे किसान अपने खेतों में पेड़ लगाते हैं। कुछ पेड़- पौधे फलहारी होते हैं तो अन्य पेड़ -पौधो का उपयोग अन्न या घास चारा लकड़ी आदि के उपयोग में आता है । इसी बीच किसानों ने जो पेड़ खेतो में लगाए होते हैं ।उन पेड़ों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपयोग तब होता है ,जब कड़ी धूप में काम करने के पश्चात किसान आराम  करने के लिए पेड़ की ठण्डी छाया में  बैठते हैं।

संघर्ष चक्र

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नमस्कार दोस्तों मेरी आज की कविता का सम्पादन जीवन  में संघर्ष चक्र से सम्बंधित  है। आशा करती हूँ की आप इस कविता को  ध्यान  से पढ़ेंगे और इस जीवन चक्र में स्वाभविक कठिनायों का हल मिलेगा। इस कविता को अपने बड़े और छोटे सगे सम्बन्धियो से शेयर करें । इस जीवन के संघर्ष चक्र में  बताया गया है कि प्रयास निरतंर करते रहना चाहिए। जिससे  हमारे जीवन की समस्याओं का हल समयनुसार  निकलता जाता है । इंतज़ार बहुत नज़दीक का है , मगर उसकी दूरी  लम्बी लगती है । चाल से ज्यादा कामनाएं बढ़ जाती है , मगर सफ़र में रूचि होने लगती है । धीरे धीरे कामनाओं से ज्यादा हमारा दायरा बढ़ जाता है , उस दायरे  में रहें या बढ़े इसमें हमे असमंजस का होने लगती है । दायरे की तरफ़ बढ़े तो उलझनें  फसा लेती हैं, और दायरे में रहें तो हमारी सोच भी सीमित होने लगती है । उलझनों से सुलझने के लिए फिर दायरा को आगे बढ़ाना पड़ता है , सोच को सीमा से निकलकर  असीमित होने लगती है । जब सोचते वक़्त सीमा पार कर सकते हो , तो जरूर प्रयास की सीमा भी बढ़ने लगती है । जब प्रयास की सीमा बढ़ने लगती है , असीमित कामनाएं सीमित होन

किसको पता था...चले जाना है ।

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नमस्कार दोस्तों मेरी आज की कविता का शीर्षक है , किसको पता था.... चले जाना है ।  इस्  पताथा कविता के माध्यम से में आज  जिंदगी से जुडी कुछ अहम पहलुओं पर शाब्दिक  दर्शन डालते  हुए प्रकाशित किया है । इस कविता को बहुत कम शब्दों में पूरा बात का व्याख्यान किया है।मेरी  पुरानी कविताओं की तरह इस कविता को भी आपका ढेर सारा प्रेम मिलेगा । और कविता को पढ़ कर आप आनंद मिले इस बात की कामना करती हूं।  कविता के अंत में अपने मूल्यवान  कमेंट करने न भूलें। आपके द्वारा किये हुए कमेंट  शेयर और subscibe ही   मेरी कविता की प्रेरणा का स्त्रोत होते हैं। तो आज की कविता इस तरह से नीचे प्रकाशित की गयी है .... किसको पता था चले  जाना है .. जिस दुनिया से आए थे वापस उसी दुनिया में मुड़ जाना है। किसको पता था चले जाना है.... भाग-दौड़ कर  रहे थे आराम करने के लिए, आराम छोड़कर ही भाग रहे थे। किसको पता था  चले जाना है.... यहाँ - वहाँ  जहाँ भी जा रहे थे , उसी जगह ख़ता खा रहे थे। किसको पता था  चले जाना है... कुछ अधूरे किस्से  थे , जिनको पूरा सुना रहे हैं। किसको पता था, चले जाना है... चलते चलते गले मिले थे ,

पसन्द है न बारिश का आना .....

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 नमस्कार दोस्तों ,               मेरी आज की कविता का शीर्षक है , "बारिश का आना" इस कविता के माध्यम से वर्षा की उस स्तिथि का व्याख्यान है जिसका हर कोई लुत्फ़ उठाना चाहता है, इसीलिए आइए आज आपको काल्पनिक वर्षा से आनंदित करवाते  हैं। बारिश का आना .....🌧️🌧️ अच्छा लगता है हमें बारिश का आना, सावन में रिमझिम का बारिश का हो जाना। बारिश की धीमी बूँदों  का छत से  टपक जाना ,  फिर छज्जे से टिप -टिप को देख कर , हमारा कमरे से बाहर आ जाना, फिर  बाहर आँगन में आकर अपनी बाहों  को फैला देना।  अच्छा लगता है ,हमें गर्मियों में हवा का ठंडा हो जाना, और उस सुकून से भरी ठंडी हवा में हमारा राहत की साँस लेना। पहली ही बारिश में नहाते हुए ख़ुशी मनाना, चिलचिलाती गर्मी से चैन की जन्नत  पाना। हाँ ,अच्छा लगता है हमें बारिश का आना ,  हमारा गर्दन ऊपर करके आसमाँ की तरफ चेहरा  मुस्कुराते हुए ख़ुशी में झूम जाना । गर्म हवाओं  के बीच बारिश को बुलाना, ज़मीन के क्षेतिज समांतर हाथों  को  फैलाना  और गोल गोल घूमते हुए भीग जाना। हाँ अच्छा लगता है मुझे बारिश का आना ,   बहुत देर तक शीतल जल

राखी का उत्सव .......

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नमस्कार ,               मेरी आज इस कविता का सम्बन्ध राखी के विशेष उत्सव से है । इस  काव्य रचना के माध्यम से राखी के उत्सव को कैसे मनाया जाता है  और बहन -भाई का यह दिन कितना खास होता है  इस शब्द को माध्यम से बताया गया है । आशा करती हूं आपको ये पंक्तियां पसन्द आएगी और आप  कमेंट  करके बताएं और अपने भाई बहन से शेयर करके बधाई दे।             उत्सव राखी का ... श्रावण माह का खास दिवस आया है , राखी का उत्सव ढेर सारी खुशियाँ लाया है। भाई-बन्धुओ ने अपनी रूठी हुई बहन को मनाया है, खास उपलक्ष्य में बहन ने  भी पूजा का थाल सजाया है। चन्दन, दीपक, और फूलों की खुशबू से महकाया है, राखी, अक्षत के साथ मिष्ठान ने भाई को ललचाया है । नित स्नान कर आज सुबह भाई नए वस्त्र धारण कर आया है, उतार कर आरती , लाडली बहन ने मस्तक पर तिलक सजाया है।  भाई ने दाहिनी कलाई आगे बढ़ाकर , रक्षा की डोर को बँधाया है, खुशिओं के इस पावन उत्सव पर बहन -भाई का चेहरा खिलखिलाया है। अब बहना ने भाई की पसन्दीदा मिठाई से मुँह मीठा करवाया, भाई ने भी ख़ुशी से ताज्जुब उपहार बहना को दिलाया

एक नाम मिसाईल मैन लौट आए....

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नमस्कार दोस्तों,    मेरी आज की कविता का शीर्षक है  " एक नाम मिसाइल मैन लौट आए" ।   इस कविता के माध्यम से  डॉ कलाम जी की जीवन शैली को प्रकाशित किया गया है । उनके आरंभिक जीवन के संघर्ष से लेकर पूर्ण जीवन की सफलता को काव्य में व्यक्त किया गया है। आशा करती हूं यह कविता आपको पसंद आएगी और आप कमेंट में जरूर करें । काश ! कलाम सर का मुस्कुराता हुआ चेहरा वापस लौट आए, ख़ामोशी से सजी हुई, वीणा की तान वापस लौट आए।   हौंसलों से बुलन्द अपूर्त जहान लौट आए, आगामी स्कूल कॉलेज के छात्रों  के आदर्श लौट आए। बच्चों में बचपना और बुजुर्गों का अनुभव लौट आए, जीव -प्राणी से प्रेम , और ईमानदार छवि की पहचान लौट आए। अख़बार बेचते हुए, संघर्षवादी जीवन का उत्थान लौट आए, देश के  नए राष्ट्रपति बने,  वो कलाम सर की तस्वीर वाली अख़बार लौट आए। राष्ट्रपति भवन की शान Dr. A.P.J. अब्दुल कलाम लौट आए,  संदूक और 2 सूट वाले महान  लौट आए। प्रेरक विचारों से लिखी हुए किताबों के लेखक लौट आए, एयरोस्पेस का इंजीनियर लौट आए। रक्षा अनुसंधान का विकास लौट आए,  इसरो का अंतरिक्ष अनुसंधान लौ

मैं ढूँढता कहाँ हूँ.....

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नमस्कार दोस्तों ,           मेरी अगली कविता का शीर्षक है, " मैं ढूंढता कहाँ हूँ " । आशा करती हूँ हमेशा की तरह यह कविता  भी आपको पसंद आएगी और आप मेरी इस पोस्ट पर कमेंट और शेयर करना  न भूलें। मैं ढूंढता कहाँ हूँ... मैं तुम्हें कहाँ ढूँढूँ? हीरा समझ कर , कोयले की खान में ढूंढता हूँ। थकता बहुत हूँ, मगर हार नही मानता हूँ। मैं तुम्हें कहाँ ढूँढूँ ? चाँद समझ कर , आसमाँ के सितारों में टिमटिमाता हूँ। देखता बहुत हूँ, मगर नज़र नही आता हूँ।  तुम्हें कहाँ ढूँढूँ ? महज़बीन समझ कर  आईना के सामने मुस्कुराता हूँ। खुश बहुत हूँ, मगर फिर भी तुम्हें अपने से दूर पाता हूँ। प्रिय !अब मैंने तुम्हें ढूँढ लिया है... पूछो कहाँ? . . . अदृश्य समझ कर , तेरी तस्वीर बनाता हूँ। बाहर से ढूँढता बहुत हूँ, मगर अपने ही दिल के अंदर पाता हूँ। इस कविता को पढ़ने के लिए शुक्रिया ।भविय की पोस्ट ल् लिये इस ब्लॉग को फॉलो जरूर करें।

आत्मनिर्भरता ...

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हम आते  जाते  योजनाएं बनाकर  चले जाते हैं, दूसरों को सलाह देकर खुद मज़े से सो जाते हूँ, बनी बनाई योजनाओं को फिर भूल जाते हूँ, हर  बार मुसीबत पड़ने पर किसी न किसी पर निर्भर हो जाते हैं। जब ईश्वर ने मनुष्य को सद्बुद्धि दी  और कर्मठ काया , तो फिर क्यों किसी दूसरे इंसान को अपनी आड़ है बनाया ? अपने काम के लिए दूसरों पर निर्भर होकर ,कोई वजूद नही रहता है, अगर हमारा पेट बग़ैर मेहनत किए ही भर जाता है।  माना कि बाहर से तो  पेट भर गया ,  मगर अंदर से दिल संतुष्ट नही होता है। आस पड़ोस सबका एक जैसा ही हाल हो जाता है , काम शुरू कौन करेगा? इस ख्याल से सब बेचैन हो जाते हैं। मानता हूं इस दुनिया ने लोगो को खूब दौड़ाया है, लेकिन इसी लम्बी दूरी के बाद  आत्मनिर्भर  भी तो बनाया है। बड़े बड़े  देशों ने है हिन्दुस्तान के आगे  सर  झुकाया है,  कड़ी मेहनत करके सबने खूब पसीना बहाया है। आत्मनिर्भर बनकर  कर देंगे विश्व पटल पर धमाल, सारी  दुनिया देखेगी, हिंदुस्तान में  हुआ है कमाल। अब दोबारा ये गलती नही दोहराएंगे,  न अब  चीनी खिलौना खरीदेंगे  न पाकिस्तानी पान खाएंगे। आत्मनिर्भर भारत की नींव रखेंगे,  वस्तुओं का निर

मिल-बाँट कर खाने की रीति बनाएँ

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  नमस्कार दोस्तों मेरी आज की कविता एक चिड़िया की व्यवहारिक  जीवन  पर केंद्रित है, आशा करती हूँ आप सबको पसन्द आएगी , कविता पढ़ने के साथ ब्लॉग को subscribe जरूर करें। सुबह के वक़्त वो डाल पर बैठकर चहचहाती है, मुझे सोई हुई को गहरी नींद से जगाती है। मेरे पास जाने से वो अपने पंख फड़फड़ाती है, फुर्ती से  खोलकर पंख वो डरती हुई उड़ जाती है। थोड़ी देर में वापस उसी डाल पर चीं-चीं करके बुलाती है, अंगूर की बेल पर अपनी तेज़ नज़र मुझ पर दौड़ती है। पक्के अंगूर के गुच्छे देखकर मेरी जीभ से ललचाते हुए लार टपक जाती है, अंगूर के पास जाकर ,कच्चे अंगूर खाने से मेरी आँख मिचमिचाती है।  मेरे बेल के भीतर जाने से , चिड़िया छत पर लौट जाती है, किन्तु जाते -जाते  पक्के अंगूरों को जूठा कर जाती है।  मैं भी बेल से जूठे अंगूर  तोड़कर फेंक आती हूँ, चिड़िया तो फिर अगले दिन पक्के हुए अंगूर चख जाती है। कुछ पल  मेरी और चिड़िया की पकड़न पकड़ते चलती है, छोटी सी चिड़िया हमसे न पकड़ी जाती है। फिर इसी प्रतियोगिता के चलते एक बात समझ में आती है, अन्न- जल सब  खाद्यान पर मनुष्य के साथ जीव-जंतु का भी हिस