आज़ादी बूटे दी...


नमस्कार दोस्तों मेरा आज के लेख का नाम "आज़ादी बूटे दी" है। बूटा पौधे को कहा जाता है। इस लेख का प्रकाश  हमारे पर्यावरण से हो रही मौलिक छेड़छाड़ से सम्बंधित है । आप इस लिख को जरूर पढ़ें  और आपसे विनति है कि आप पर्यावरण के बचाव में सहयोग जरूर ऱखे। आज का लेख इस तरह से निम्लिखित है।






आजादी बूटे दी....

न जाने आने वाले कल का गुजारा कैसे होगा?
यह प्रश्न अक्सर उन लोगों के जुबाँ से निकलता है जिन्होंने अपनी जिंदगी में प्रयासरत कार्य किए होते हैं। मेहनत जिंदगी का एक ऐसा कर्म है जिसके  बिना जिंदगी अधूरी है । और जो मेहनत करता है उसको  जिन्दगी में फल भी मिलता है भले ही यह फल देर से मिले ।

 अब  मेरे मन में एक विचार इसी पहलू से आलंकित आया है , जिसमे किसान अपने खेतों में पेड़ लगाते हैं। कुछ पेड़- पौधे फलहारी होते हैं तो अन्य पेड़ -पौधो का उपयोग अन्न या घास चारा लकड़ी आदि के उपयोग में आता है । इसी बीच किसानों ने जो पेड़ खेतो में लगाए होते हैं ।उन पेड़ों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपयोग तब होता है ,जब कड़ी धूप में काम करने के पश्चात किसान आराम  करने के लिए पेड़ की ठण्डी छाया में  बैठते हैं।
मगर अब व्यस्तता के चलते कहाँ  लोगों को पोधे उगाने का समय मिलता है ।  पौधे  की परवरिश एक  शिशु की तरह करनी पड़ती है , जँगली पशुओं से रखवाली करना , फिर उसमें समय पर पानी देना, आस पास की जगह को साफ़ रखना पड़ता है । तब जाकर एक पेड़ फिर बड़ा होने पर वर्षों तक ठण्डी छांव देता है ।  

 आजकल लोगों की जीवन शैली में बदलाव आ रहा है ,  जहाँ कच्चे आँगन में फलदार पौधे और  सजावटी फूलों को उगाया जाता था  , वहीं आजकल बाज़ार पर निर्भरता के कारण लोगों ने फलदार पौधों को उगाने में रूचि कम लेते हैं ।   अब बात रही फूलों की तो फूलों के भी सजावटी और बनावटी सुंदरता की कमी नही है, मगर ग़ुलाब की खुशबू बनावटी फूलों में कहाँ  से मिलेगी ।
धीरे धीरे  लोगों ने ग़मले में पौधों  को उगाने के लिए बढ़ावा दे रहे हैं। अच्छी बात है कि उगा तो रहे हैं , मगर  लेखिका को एक बात सोचने पर विवश   कर रही है ।   वह इस तरह से  है कि जहाँ  पेड़ जँगल में एक दूसरे को हरा भरा  देखकर हरियाली में बढ़ते हैं। वही  ग़मले में उगने वाले पौधे को प्राकृतिक  उन्नति स्व वंचित रहना पड़ता है ।  गेट बंद मकान की तीसरी  या चौथी मंजिल  पर सीमेंट वाली दीवारों से  कहाँ वो  बड्डपन्न मिलेगा।  एक पोधे की कीमत की तुलना में एक ग़मले की  कीमत ज्यादा  होती है ।
मगर वास्तविकता यह है कि ग़मले की कीमत पौधे की कीमत से न्यूनतम है।

पेड़ो से मिलने वाली  हवा की कीमत  ऑक्सीजन के सिलिंडर नही चुका सकते हैं, ये हम सभी को पता है ।  जो  मिट्टी हम ग़मले में कीटनाशक से पोषित करते हैं यह अमूल्य मिट्टी है ,  हम शाम को घर द्वार बंद करके  रसोई में खुद का खाना तो बना लेते हैं  । 
ज़रा सोचिए ! क्या पोधे को ऑक्सीजन मिल पाती है या जो पोधे  कार्बन डाइऑक्साइड  रात को छोड़ते है क्या वह हमें नुकसान नही करती होगी ?

 अक्सर जैसे हरे पौधे को देखकर  हमारे मन में खुशहाली छा जाती  है । उसी तरह से पौधे को पौधे की संगत देख कर  खुशहाली का वातावरण मिलता है  और उस वातावरण में  पौधे की उन्नति सही तरीके से होती है । इसलिए हमें  पौधो को सिर्फ ग़मले में कैद करके नही रखना चाहिए । बल्कि उनको उनके उचित  स्थान पर ही रखना चाहिए । जो बूटे हम सभी अपने घरों में लगाते हैं उनकी भी आज़ादी होनी चाहिए।

शुक्रिया दोस्तों । आपने कमेंट और सुझाव जरूर देते रहिएगा ।
जय हिंद जय भारत।

टिप्पणियाँ

  1. So true..bonsai shud also not be practiced ❤️so lovely thoughts chaya

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  2. Bahut khub jitani bhi tarif ki jaye kaam hai accha or sarthak praysa 👌👌

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  3. Kehte h mehnat krne se success hath lgti h usi trha jese hm kisi b ped ya kisi gamle ko sichte h or kafi time baad wo ped fal dene or chaya deta h ji very nice chhaya ji

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  4. पेड़ों से निकले ऑक्सिजन की कीमत सिलिंडर में बंद ऑक्सिजन नहीं चुका सकती🙏

    मानव प्रगतिवादी प्राणी है, वो जड़ बनकर नहीं रहना चाहता, वह भौतिकवादी दुनिया में खो गया है, आजकल बसाहटें खुली न होकर एक बंद कमरे में सिमट गई है, जैसा कि आप आजकल कॉलोनियों में देख सकते हैं... पहले गांव के मकानों के आंगन बड़े हुआ करते थे वहां आप आराम से बड़े पौधे लगाकर संरक्षण, संवर्द्धन कर सकते थे,पर अब दुनिया आगे बढ़ने के साथ साथ सिमटती जा रही है, इसलिए अब बंद कमरों में ही सीमित मात्रा में पौधों को गमले में सजाया जाता है ।

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