अपना- सा रिश्ता

यारी-दोस्ती ,रिश्ते - नाते 
सब बड़े ही प्यारे होते,
यूँ तो हर किसी को 
"अपना" कह नही पाते।

अपनों से थोड़ा गिला -शिकवा तो
चलता ही रहता है,लेकिन
थोड़ी देर के बाद फिर
एक-दूजे के बिना रहा नही जाता।

आजकल कहने को तो 
सब अपने हमदर्द कहलाते हैं,
मगर किसी को भी बिना बताए
हमारे जज़्बात समझ न आते ।

वो कभी हमसे ही
 हमारी शिकायत लगाते हैं ,
तो कभी हमारे रूठ जाने पर 
खुद हमे मनाते हैं।

सामने मुँह पर तो 
कोई भी "अपना" कह जाता है,
मगर कष्ट की घड़ी में
चेहरा छुपाकर , कोई नज़रें नही मिलाता।

कौन अपना है? ,
 कौन पराया है?
इस इम्तिहान के परिणाम ने
हर किसी को उलझाया है  ।

हमारा हाथ पकड़कर 
जिसने हमसे वायदा किया,
अपना मतलब  बीत जाने पर
उसने भी हमसे दामन छुड़ाया।

याद रखना एक तुजुर्बा
निकलकर सामने आया है.....

 इस दुनिया में "अपना"सिर्फ वही कहलाया है,
जिसने मुश्किल वक़्त में हमारा  साथ निभाया ।

कभी किसी की अमीरी देख के रिश्ता न बनाना,
और न ही "अपनों" को गरीबी देख के  ठुकराना।


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